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आह धरती कितना देती है

सुमित्रानन्दन पंत

कवि-परिचय

सुमित्रानन्दन पंत हिन्दी के प्रमुख छायावादी कवि हैं जिन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है।  पंत को रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी और श्री अरविंद घोष जैसे महान व्यक्तित्व का सानिध्य मिला। 1921 में इन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी तथा इनके संघर्षमय जीवन का आरंभ भी हुआ। इन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत और बंगला का स्वाध्याय किया। 1961 में भारत सरकार द्वारा इन्हें पद्‌मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया।


इनकी कविताओं का मुख्य आकर्षण प्रकृति सौन्दर्य रहा है। मूलत: प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त कवि होने के कारण इनके काव्य में प्रकृति के बड़े हृदयग्राही चित्र मिलते हैं। इनकी भाषा अत्यंत सहज तथा मधुरता से परिपूर्ण है।


प्रमुख रचनाएँ - कला और बूढ़ा चाँद ( साहित्य अकादमी ), चिदम्बरा ( ज्ञानपीठ पुरस्कार ), लोकायतन (सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार), वीणा, पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या आदि।

कठिन शब्दार्थ

छुटपन - बचपन

कलदार - टकसाल का बना हुआ सिक्का

बंध्या मिट्‌टी - अनुपजाऊ मिट्‌टी

बाट जोहना - इंतज़ार करना

पाँवड़े बिछाना - गलीचा बिछाकर इंतज़ार करना

अबोध - अनजान

मधु - वसंत

शरद - सर्दी

ऊदी - बैंगनी

भू के अंचल में - भूमि की गोद में

हर्ष विमूढ़ - खुशी में मुग्ध

नवागत - उगते हुए नए पौधे

डिंब - अंडा

निर्निमेष - एकटक

बौने - छोटे

चंदोवे - वितान

लतर - बेल

मावस - अमावस्या (कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि)

प्रसविनी - जन्म देने वाली

वसुधा - धरती

समता - बराबरी

क्षमता - योग्यता

ममता - प्रेम 

प्रश्न

"हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे" पंक्ति को आधार बनाकर ’आ: धरती कितना देती है’ कविता की समीक्षा कीजिए।

उत्तर
सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति के सुकुमार कवि की संज्ञा प्रदान की गई है। मूलत: प्रकृति से प्रेरणा प्राप्त कवि होने के कारण उनके काव्य में प्राकृतिक सौन्दर्य के बड़े हृदयग्राही चित्र मिलते हैं। पंत ने प्रकृति से संवेदनशीलता को ग्रहण किया था जो सीधे-सीधे उनके काव्य में अभिव्यक्त हुआ है। पंत की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता उसकी चित्रात्मकता ( शब्दों द्‌वारा चित्र-रचना) है। इनके काव्य-ग्रंथों में पल्लव, गुंजन, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, उत्तरा लोकायतन ( सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार ) और चिदम्बरा ( भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारत सरकार ने इन्हें पद्‌मभूषण से भी सम्मानित किया है।
धरती रत्न प्रसविनी है क्योंकि वह रत्नों को जन्म देने वाली है परन्तु मनुष्य स्वार्थवश उसमें अपनी तृष्णा रोपता है और अपनी कामना को सींचता है। प्रस्तुत कविता में कवि अपने बचपन में लालच में आकर धरती में पैसे बो दिए। उस समय उसने सोचा था कि जिस तरह बीज बोने पर पौधा उगता है उसी तरह पैसे बोने से पैसों के प्यारे पौधे उग आएँगे। पैसे उगते नहीं हैं, इस बात से बालक अनजान था। पैसों के अंकुर नहीं फूटे। बालक को लगा कि धरती बंजर है । इसमें पैदा करने की कोई शक्ति नहीं है। कवि कहते हैं कि जब से उन्होंने पैसे बोए थे तब से लगभग आधी शताब्दी बीत गई है पर पैसों की फ़सल नहीं उगी। कई ऋतुएँ आईं और गईं पर बंजर धरती ने  एक भी पैसा नहीं उगला। एक बार फिर से गहरे काले-काले बादल आसमान पर छाए और धरती को गीला कर दिया। मिट्‌टी नरम हो गई थी। कवि ने कौतूहल के वशीभूत होकर मिट्‌टी कुरेद कर घर के आँगन में सेम के बीज दबा दिए। कवि के शब्दों में -

 

मैंने कौतूहलवश, आँगन के कोने की

गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर,

बीज सेम के दबा दिए मिट्‌टी के नीचे,

भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिए हों।

कवि को यह घटना याद नहीं रही। ये बीज ममता के तो थे पर इनको तृष्णा से नहीं सींचा गया था। सेम के अंकुर फूट गए थे। एक दिन संध्या समय टहलते हुए कवि की दृष्टि उन पर पड़ी। कवि उन्हें एकटक देखते रहे। उन अंकुरों का कवि ने बहुत सुंदर वर्णन किया है - कवि को लगा कि उन्होंने छोटे-छोटे छाते तान रखे हैं। कवि की कल्पना अत्यंत सटीक है, वर्षा ऋतु में छाते का बिम्ब अत्यंत मनमोहक है पर कवि ने प्रकृति के इन छोटे-छोटे पौधों में जीवन की अभिव्यक्ति की है।

कवि के शब्दों में -

छाता कहूँ या विजय पताकाएँ जीवन की

या हथेलियाँ खोले थे वह नन्हीं, प्यारी -

धीरे-धीरे ये अंकुर पत्तों से लद कर झाड़ियाँ बन गए। कुछ समय के पश्चात आँगन में बेल फैल गई। आँगन में लगे बाड़े के सहारे वे सौ झरनों के समान ऊपर की ओर बढ़ने लगे। लताएँ फैल गईं। उन पर छोटे-छोटे तारों जैसे फूल खिले। सेम की फलियाँ लगीं जो बहुत सारी थीं। काफ़ी समय तक सेम की फलियाँ तोड़ते रहे और खाते रहे। कवि कहते हैं कि धरती माता अपने पुत्रों को कितना देती है किन्तु बचपन में लालच के कारण कवि ने इस तथ्य को नहीं समझा था।

कवि कहते हैं कि धरती वसुधा है। वह तो अनेक रत्नों को जन्म देती है। हम जो बोते हैं वही पाते हैं। हमें लोभ, लालच और स्वार्थ का परित्याग कर धरती में उचित बीजारोपण करना चाहिए। धरती हमें हमारी आवश्यकता से भी अधिक देती है। धरती को समाज का प्रतीक मानकर कवि कहते हैं कि इसमें सच्ची समता के दाने बोने चाहिए। मनुष्य की क्षमता तथा मानव ममता के दाने बोने चाहिए अर्थात हमें समतामूलक समाज की स्थापना करनी चाहिए जिसमें समस्त मानव-जाति को बराबरी का दर्ज़ा प्राप्त हो। कोई छोटा-बड़ा न हो, अमीरी-ग़रीबी का अंतर न हो, ऊँच-नीच का भेदभाव न हो। समाज में व्यक्ति की योग्यता के आधार पर उसका उचित सम्मान हो। मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम का भाव होना चाहिए जिससे भाईचारे की भावना प्रबल हो।

रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।

इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं,

इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं,

इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं,

जिससे उगल सके फिर धूल सुनहरी फ़सलें,

मनवता की - जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ

हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।

यह निश्चित है कि हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे। बीज रूपी मणियाँ बोने से सेम रूपी फलियाँ उगेंगी तथा ममता, समता, भाईचारे के बीज (भाव) यदि धरती में बो दिए जाएँ तो मानवता मुस्करा उठेगी। धरती की धूल से सुनहरी फ़सल उत्पन्न होगी और मनुष्य की मेहनत का प्रतिफल मानवता के रूप में प्राप्त होगा जिससे दसों दिशाएँ श्रम की महत्ता से मुस्कराने लगेंगी।

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