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कथानक का सारांश

"सारा आकाश" राजेंद्र यादव जी का पहला उपन्यास भी है और तीसरा भी। सन् 1952 में यह "प्रेत बोलते हैं "नाम से छपा था और बाद में लगभग 10 साल बाद संशोधित रूप में इसका पुनर्लेखन हुआ तो इसका नाम सारा आकाश रखा गया । यह उपन्यास राजेंद्र जी की औपन्यासिक यात्रा का मील का पत्थर है। प्रसिद्ध उपन्यास निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार की विसंगतियों को उजागर करने में सक्षम है। सारा आकाश उपन्यास का कथानक दो भागों में बँटा है-- पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्द्ध। 

 

फिर दोनों खंडों को दिशाओं के आधार पर 10-10 खंडों में बाँटा गया है। इस तरह पूरे उपन्यास को 20 भागों में बाँटा गया है। पूर्वार्द्ध को साँझ, बिना उत्तर वाली दस दिशाएँ तथा उत्तरार्द्ध को सुबह प्रश्न पीड़ित दस दिशाएँ भी कहा गया है। 

उपन्यास का नायक समर एक निम्न मध्यमवर्गीय ठाकुर (राजपूत) परिवार का सदस्य है। उसके परिवार में कुल 9 सदस्य हैं। आमदनी के नाम पर उसके पिता की ₹25 की पेंशन तथा बड़े भाई धीरज की ₹99 तनख्वाह मात्र है। समर इंटर (कक्षा - ११ और १२) का छात्र है। वह कुछ जानना चाहता है, ताकि उसके सामने दुनिया झुके। उससे छोटी मुन्नी पति-परित्यक्ता होकर पिता के घर ही रहती है। मुन्नी की शादी सोलह - सत्रह साल की उम्र में हुई थी। ससुराल में सास और पति मिलकर उस पर अत्याचार करते रहे। उसे वहाँ नौकरानी की तरह जीवित रहना पड़ा। एक दिन सारे शरीर पर बेंतों के फूले हुए नीले निशान लेकर वह वापस घर चली आई। अमर मैट्रिक (कक्षा - १०) और कुँवर कक्षा ६ में पढ़ने वाले छात्र हैं। मुन्नी की शादी में ठाकुर साहब जो कर्ज लेते हैं, उससे मुक्त होने के लिए समर का विवाह सुंदरी और मैट्रिक पास प्रभा से करते हैं, पर दहेज में कुछ न मिलने के कारण उन्हें कर्ज से छुटकार नहीं मिल पाता है। समर के घोर विरोध के बावजूद उसका विवाह कर दिया जाता है। उसकी सारी महत्त्वाकांक्षाएं, कुछ कर दिखाने की के सपने, घुट घुट कर मरने लगते हैं। दहेज मिलने की आशा में ठाकुर साहब दिल खोलकर खर्च करते हैं और दहेज के रूप में मिलती है -- एक आधुनिक पढ़ी लिखी बहू और कर्ज़ के मार से छुटकारा मिलने की जगह बोझ और भारी हो जाता है।

 

सुहागरात के दिन ही समर के सामने वाले घर में सांवल की बहू जल कर मर जाती है। एक और शादी का उत्सव समारोह संपन्न हो रहा है और दूसरी ओर सारे मुहल्ला और परिवेश में लोगों की चीख पुकार गूँज रही है। समर का मन इन सबसे दूर भाग जाना चाहता है। इसी बीच सुहागरात की औपचारिकता की पूर्ति के लिए समर की भाभी उसे कमरे में धकेल कर दरवाजा बंद कर देती है। कमरे में प्रभा अपने ही विचारों में खोई हुई खिड़की पर सिर टिकाए खड़ी रहती है। समर कमरे में बैठा-बैठा यह सोच रहा था कि प्रभा अब आकर उससे रो-रोकर माफ़ी माँगेगी और उसके पैर पकड़ लेगी। पर ऐसा कुछ नहीं होता। प्रभा वैसे ही चुपचाप खिड़की से सर टिकाए खड़ी रहती है। समर इसे अपना अपमान समझ कर कमरे से बाहर निकल जाता है और जाकर छत पर लेट जाता है। वह रात भर अपने इस अपमान में उबलता रहता है और अंत में एक ठोस निर्णय लेता है कि प्रभा से आजीवन बातचीत नहीं करेगा। दूसरे दिन सुबह प्रभा खाना बनाती है। अच्छा मौका देखकर प्रभा को नीचा दिखाने के लिए समर की भाभी दाल में अधिक नमक डाल देती है। घर के नियम के अनुसार सबसे पहले समर को ही खाना दिया जाता है। वह खाना खाने के लिए बैठता है, किंतु जैसे ही पहला ग्रास मुँह में रखता है, ‘ओ-ओ’ करता हुआ रसोई बाहर की ओर भागता है और खाना उगल देता है। फिर लौट कर अन्न-देवता को प्रणाम करता है साथ ही परोसी हुई थाली को ठोकर मारकर बाहर चला जाता है। फिर प्रभा अनादर, उपेक्षा और हँसी का पात्र बनकर रह जाती है। उसे भाभी का व्यंग सहना पड़ता है अम्मा की जली कटी बातें सुननी पड़ती है। एकमात्र मुन्नी को ही पता था कि प्रभा निर्दोष है लेकिन वह चुपचाप ही रहती है। 

 

कुछ समय तक ससुराल में रहने के बाद प्रभा मायके चली जाती है। समर अपनी पढ़ाई में लीन हो जाता है। घरवाले उसके साथ अभद्र व्यवहार करते हैं, जिसका कारण यह होता है कि वह अब विवाह के बाद भी कमाने की चिंता नहीं करता। मायके में 6 महीने बिताकर अमर के साथ प्रभा जब फिर ससुराल आती है, तब समर को अमर से यह पता चलता है कि प्रभा ने उसके संबंध में मायके में कोई शिकायत नहीं की है। यह सुनकर समर का मन प्रभा के प्रति कोमल हो आता है। वह खाना खाकर लालटेन लेकर पढ़ने बैठ जाता है और प्रभा के आने की प्रतीक्षा करने लगता है। प्रभा आती है और संदूक से कपड़े निकाल कर बाहर चली जाती है। इस प्रकार समर की मिलने की इच्छा समाप्त हो जाती है। वह प्रभा को फिर से घमंडी समझने लगता है। इसी बीच भाभी एक बच्चे को जन्म देती है। भाभी की स्थिति प्रभा को गृहस्थी की चक्की में पिसने के लिए मजबूर करती है। बस सुबह 6:00 बजे से रात 12:00 बजे तक घर का काम करती रहती है। प्रभा को इस स्थिति में देखकर समर मन-ही-मन बहुत खुश होता है। प्रभा का घुँघट ना निकालना, घर में एक हल्के तूफान की सृष्टि करता है, किंतु उसपर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसी बीच भाभी की बच्ची के नामकरण समारोह का दिन आता है। समर शाम को जब घर पहुँचता है, तो देखता है कि घर में शोरगुल मचा हुआ है और वह वहाँ चला जाता है। समर को यह पता चलता है कि पंडित जी ने सुबह जिस मिट्टी के ढेले से गणेश जी की पूजा की थी, उसी से अनजाने में प्रभा ने बर्तन माँज दिया था। इस पर समर क्रोधित होकर प्रभा के गाल पर एक थप्पड़ मार देता है, जिसके कारण वह जमीन पर गिर पड़ती है। प्रभात के गाल पर तमाचा मारकर बाद में खुद पछताता है। वह मंदिर जाकर अपने किए गए अपराध के लिए भगवान से क्षमा माँगता है तथा यह निर्णय लेता है कि अब सारा कुकर्म छोड़कर मन लगाकर पढ़ेगा। प्रभा का जीवन पूरी तरह से मशीनी हो गया है। उसके प्रति सहानुभूति रखने वाली मुन्नी भी अब मजबूर होकर अपने बदचलन पति के साथ रहने ससुराल चली जाती है। वह जाते-जाते समर से करती है कि ‘भैया भाभी से बात करना। उन्होंने कुछ भी नहीं किया।’ प्रभा कभी अपना सिर धोने या मन बहलाने छत पर चली जाया करती थी। इसी बात को लेकर उसके सास-स्वसुर प्रभा पर चारित्रिक लांछन लगाते हैं, जिसे सुनकर प्रभा गुस्से में तिलमिला उठती है। जाड़े के दिन थे समर अपने मित्र दिवाकर के साथ सिनेमा देखकर और उसके घर खाना खाकर रात को अपने घर देर से लौटता है। प्यास लगने पर पानी पीने के लिए छत के दूसरे किनारे तक चला जाता है। वहाँ देखता है कि चांदनी रात में प्रभा दीवार से लगी बैठी है और रो रही है। उसे मुन्नी की कही बात याद आती है। वह सब कुछ भूलकर प्रभा से पूछता है कि आधीरात को यहाँ बैठी क्या कर रही हो? इस पर प्रभाव उत्तर देती है -- “आपको क्या है? आप जाकर सोइए न! एक साल से कभी आपको चिंता हुई कि मैं मरती है या जीती है।” प्रभा के यह वाक्य समर को भीतर तक भेदते चले जाते हैं। वह भावावेश में आकर प्रभा के सामने बैठ जाता है और अचानक वे दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोने लगते हैं। दोनों सारी रात बिना एक दूसरे को देखे बिना बोले बस रोते ही रहते हैं। सुबह किसी के जागने से पहले बाहर आते-जाते प्रभा समर से कहती है -- “हमें एक पोस्टकार्ड दे दीजिए। बहुत दिनों से माँ को लिखना चाहती थी पैसे नहीं थे।”

 

सुबह उठने पर समर आवश्यकता से अधिक खुशी का अनुभव करता है। उसे प्रतीत होता है कि अविश्वास की साँझ के साथ विश्वासयुक्त भावीजीवन की सुबह हुई है। अब पति-पत्नी एक दूसरे को अच्छी तरह पहचानना शुरू करते हैं। समर को प्रभा बड़ी संयत और गंभीर दिखलाई पड़ती है। अचानक समर का ध्यान प्रभा की फटी और मैली सारी की ओर जाता है। उसके मन में प्रभा के लिए सहानुभूति का सागर उमड़ आता है। वह जब पहले भाभी से और बाद में अम्मा से प्रभा के लिए सारी की माँग करता है, तो घर में तूफान-सा आ जाता है। साड़ी तो नहीं मिलती पर सच्चाई से उसका साक्षात्कार होता है। उसे लगता है कि नौकरी और पैसा ही सब कुछ है। वह एक ‘एंप्लॉयमेंट एक्सचेंज’ के कार्यालय में पहुँचता है। 63 आदमियों की नौकरी के लिए 3000 आदमियों के भीड़ और कोलाहल में वह स्वयं खो जाता है। एक अपरिचित व्यक्ति उसके कंधे पर हाथ रखकर चौंका देता है। उसकी सम्मोहक बातें उसके संजोए सपनों को चूर-चूर कर देती है। वह घर लौटता है, तो देखता है कि अमर प्रभा का कोई पत्र अंदर ले जा रहा है। काम में व्यस्त रहने के कारण प्रभा पत्र को संदूक में रखने के लिए समर से कहती है। संदूक में और भी पत्र थे।सारे पत्र प्रभा द्वारा रमा नामक किसी सहेली को लिखे गए थे, जो घुट घुट कर मरने वाले सपनों तथा गिरकर चकनाचूर होने वाली भविष्य के मानो जीते-जागते दस्तावेज़ हों।

 

दूसरे दिन प्रातःकाल समर दिवाकर के यहाँ जाता है। ‘एंप्लॉयमेंट एक्सचेंज’ के बाहर जिस प्रभावशाली व्यक्ति से उसकी मुलाकात हुई थी, वह दिवाकर के शिरीष भाई साहब हैं। शिरीष भाई बतियाने की कला में माहिर थे। समर शिरीष भाई के व्यक्तित्व तथा विचारों से बहुत प्रभावित होता है। चलते समय वह दिवाकर से कहीं नौकरी दिलवाने की बात करता है। दिवाकर इस शर्त पर नौकरी दिलवाने का वादा करता है कि वह आगे पढ़ेगा। समर खुश होकर घर लौटता है। 

 

प्रभा के प्रति अमर का अभद्र व्यवहार देख कर उससे रहा नहीं जाता और गुस्से से चीखता हुआ अमर की पीठ पर एक लात जमा देता है, जिसके कारण घर में एक नया महाभारत खड़ा हो जाता है। रोज-रोज के हंगामे से वह काफी दुखी और अधीर रहने लगता है। अब उसे अपना घर नरक के समान प्रतीत होता है। 

 

दिवाकर की सिफारिश पर समर को ₹75 मासिक पर प्रूफ रीडिंग का काम मिल जाता है। कृष मालिक से बातचीत पक्की कर जब वह घर लौटने लगता है तो दिवाकर से ₹20 उधार लेकर प्रभा के लिए एक साड़ी खरीदना है। प्रभा नौकरी मिलने की बात सुनकर अत्यधिक प्रसन्न होती है। फिर वे दोनों रात में भविष्य के सपनों में खो जाते हैं। प्रभा पग पग पर समर को प्रोत्साहित करती रहती है। समर की नौकरी की बात घर में फैलते ही घरवालों के व्यवहार में उसके तथा प्रभा के प्रति अप्रत्याशित (जिसकी आशा न हो) बदलाव आ जाती है। सभी अचानक विनम्र, उदार तथा सहृदय हो उठते हैं। उनका दिखावटी प्रेम समर को विषाक्त (विषैला) लगता है। वह अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए नौकरी करता है। परीक्षाफल प्रकाशित होता है और वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो जाता है। घरवालों के लाख विरोध करने पर भी समर कॉलेज में प्रवेश लेता है।अब वह सुबह में तीन-चार बजे प्रेस चला जाता है और वहाँ से 11:00 बजे मुक्त होकर कॉलेज चला जाता है। कॉलेज से 3:00 बजे तक घर लौटता है। प्रभा अपनी मधुर मुस्कान से उसका संताप ही नहीं हरती, बल्कि हमेशा उसे प्रेरित भी करती रहती है।

 

घर में अब अमर की शादी की चर्चा चलने पर समर इसका विरोध करता है। इस कारण उसे अपने पिता द्वारा अपमानित होना पड़ता है और वह वहां से उठकर ऊपर चला जाता है। प्रभा उसे सांत्वना देती है तथा मन बहलाने के लिए घूमने जाने की सलाह देती है। घर से बाहर निकलने पर रास्ते में दिवाकर तथा शिरीष भाई मिल जाते हैं जब समय अपने घर की समस्याएं सुमित भाई के सामने रखकर सलाह मांगता है तो वह उसे सप्त निक अलग हो जाने की सलाह देते हैं। उनकी दृष्टि में निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में समस्याओं की मूल संयुक्त परिवार प्रणाली है। समर बिना किसी निर्णय के घर लौट आता है तथा उमस से बचने के लिए छत पर चला जाता है। प्रभा ऊपर आती है तथा समर को बताती है कि उसने तथा भाभी ने व्रत रखा है। समर का व्रत उपवास आदि में तनिक विश्वास नहीं है अतः व स क्रोध प्रभा के व्रत रखने का विरोध करता है। आधीरात के समय नन्हीं भतीजी के रोने से प्रभाव तथा समर जाग जाते हैं। यही समर को मालूम पड़ता है कि भाभी और अम्मा ने कोई सैयद बाबा की धूनी की पुतली प्रभाकर कमर में जबरदस्ती बांधी है ताकि प्रभा के बच्चे हो सकें। इस पर समर क्रोधित होकर सैयद बाबा की धूनी की पोटली को कमर से तोड़कर गली में फेंक देता है।

 

दूसरे दिन वेतन के संबंध में पुलिस मालिक से लड़का तथा नौकरी छोड़कर संभल घर लौट आता है। इस दुखद समाचार को सुनकर भी धैर्य के साथ उसे समझाती है। उसी समय अम्मा प्रभा को चूड़ियां पहनाने के लिए बुलाती हैं, पर समर उसे मना कर देता है। अम्मा की जिद के चलते प्रभा को चूड़ियां बनानी पड़ती हैं। समर आवेश से भरा नीचे उतरता है तथा चूड़ियों से भरी प्रभा की कलाइयों को आपस में लड़ा कर चूड़ियों को तोड़ डालता है। रात को नौकरी छूटने की बात पर बाबूजी क्रोधित हो उठते हैं। समर पहली बार साहस जुटाकर उत्तर देता है। फलस्वरूप उसकी पिटाई होती है तथा सपत्निक घर से निकलने का आदेश मिलता है। अब वह घर छोड़ने का निश्चय कर लेता है। उधेड़बुन के चलते वह रात भर जागता रहता है। रोज की तरह सुबह 4:00 बज ने पर प्रभाव उसके लिए खाना तैयार कर देती है। समर छोटे से एल्यूमीनियम के बर्तन में खाना भरकर नीचे उतरता ही है कि पोस्टमैन आवाज देता है --- "तार लेना, साहब।" मुन्नी की मौत का समाचार पढ़कर वह अचेतन-सा प्लेटफॉर्म पर आकर गाड़ी में बैठ जाता है। स्टेशन आने पर गाड़ी से उतरकर जब वह खड़ा होता है, तो उसे प्रतीत होता है कि दोनों ओर से दो ट्रेनें साथ साथ आ रही हैं। वह किस पर चढ़े या किस के सामने कूद पड़े।अनिश्य के कारण उसका सिर चकराने लगता है, धरती उसे चक्कर काटती प्रतीत होती है तथा सारा आकाश डग-डग करता घूमने लगता है।

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